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तृणाणि भूमिरुदकं वाक्चतुर्थी च सुनृता ।
सतमेतानि हम्र्येषु नोच्छिद्यन्ते कदाचन ।।
{ पंचतंत्र (मित्रभेद) ~ १८२ }

विश्राम करने के लिए भूमि, भूमि पर बिछाने के लिए तृण (घास-फूस), पीने तथा प्रक्षालन के लिए जल और मधुर वाणी । सज्जनों के घर में इन चार वस्तुओं का कभी भी अभाव नहीं होता है ।

Space on earth for relaxing, grass to put on earth as cushion, water for drinking and cleansing and sweet words. A good benevolent person's house is never devoid of these four things. { Panchtantra (Mitrabheda) ~ 182 }

 

यदृच्छ्याप्युपनतं सकृतसज्जनसंङ्ग्तम्
भवत्यजरमत्यन्तं नाभ्यासक्रममीक्षते ।। { पंचतंत्र (मित्रभेद) ~ १६२ }

सज्जन मनुष्य का साथ, यदि अकस्मात संयोग से भी कभी प्राप्त हो जाता है, तो वह आजन्म मित्रता के रूप में अमर हो जाता है । वह पुनर्मिलन या आवागमन की अपेक्षा नहीं रखता है ।

The company of a generous goodhearted person, even if it is coincidental, becomes a lifelong everlasting friendhip. Such friendship does not expects one to meet again or to visit one another's place again.
{ Panchtantra (Mitrabheda) ~ 162 }

 

निर्विशेषं यदा स्वामी समं भृत्येषु वर्तते
तत्रोद्यमसमर्थानामुत्साहः परिहीयते ।। { पंचतंत्र (मित्रभेद) ~ ८६ }

यदि स्वामी अपने सेवकों में योग्यता और परिश्रम आदि गुणों का कोई भेद ना रखते हुए सभी के साथ समान रूप से बर्ताव करने लगता है, तो उसके परिश्रमी और कर्तव्यपरायण सेवकों का उत्साह मंद पड़ने लगता है ।

If the employer begins treating all of his employees in a similar manner, irrespective of their abilities, hardwork and other
merits, and does not distinguish their efforts, the meritorious and hardworking employees' spirit and enthusiasm begins dampening . { Panchtantra (Mitrabheda) ~ 86 }

 

यस्य यस्य ही यो भावस्तेन तेन समाचरन
अनुप्रविश्य मेधावी क्षिप्रमात्मवषम नयेत् ।। { पंचतंत्र (मित्रभेद) ~ ७४ }

भर्तुश्चित्तानुवर्तित्वं सुवृत्तं चानुजीविनाम्
राक्षसाश्चापी गृह्यन्ते नित्यम् छ्न्दानुवर्तिभिः ।। { पंचतंत्र (मित्रभेद) ~ ७५ }

सरूषि नृपे स्तुतिवचनं तद्वभिमते प्रेम तदद्विषि द्वेषः
तद्दानास्य शंसा अमन्त्रतन्त्रं वशीकरणम् ।। { पंचतंत्र (मित्रभेद) ~ ७६ }

जिस मनुष्य का जिस प्रकार का स्वभाव होता है उसके समक्ष उसी के मनोनुकूल आचरण करने से वह शीघ्र ही वशीभूत (प्रभावित) हो जाता है स्वामी के प्रति मनोनुकूल आचरण करना सेवक का सर्वोत्तम गुण होता है सदैव मनोनुकूल आचरण और स्तुति-गान से तो राक्षस भी वशीभूत (प्रभावित) हो जाते हैं राजा के क्रुद्ध होने पर उसकी स्तुति-प्रशंसा करना, उसके आत्मीयजनों के प्रति प्रेमभाव प्रदर्षित करना, उसके शत्रुओं के प्रति द्वेषभाव प्रदर्षित करना, उसके दानादि सुकृत्यों की प्रशंसा करना, ये सभी राजा (स्वामी) को वश में (प्रभावित) करने के लिए बिना मंत्र-तंत्र के वशीकरण होते हैं

If one behaves in accordance with a person's mind then one quickly gains control over his mind. To behave in accordance with the master is the prime duty of a servant. Through behaving always in accordance and praising one can subdue even devils, let alone humans. If a king is angry then praise him, show love towards his loved ones, hate towards his enemies, praising his charity and good deeds, these are sure ways of influencing and subduing. { Panchtantra (Mitrabheda) ~ 76 }

 

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