आचार्यस्यैव तज्जाड्यं, यच्छिष्यो नावबुध्यते 
गावो गोपाकनैव, कुतीर्थमतारिता: ।। { गुरु ( कर्तव्य ) अन्ययोगव्यवच्छेद  ~ द्वात्रिंशिका -१५ }


यदि पाठ्य विषय शिष्यों की बुद्धि में समग्र रूप से नहीं ग्रहण होता है, तो यह दोष आचार्य का समझना चाहिए कि उनके द्वारा उचित विधि से नहीं पढ़ाया गया  । जैसे यदि गौएं पानी नहीं पी सकीं तो इसमें दोष ग्वाले का है, जो की गायों को पानी पीने के योग्य उचित स्थान पर नहीं ले गया । 

If the students are unable to comprehend the lesson taught, the fault thereof lies with the Teacher, who has not followed the proper methods of instruction (and not with the Students). Just as if the cows are unable to drink water then the fault lies with the cowherd who did not take the cows to a place suitable for drinking water. { Guru ( Kartavya ) AnyaYogaVyayVachchhed ~ DvaaTrinshikaa - 15 }

 

क्षमी दाता गुणग्राही स्वामी दुःखेन लभ्यते ।
अनुकूलः शुचिर्दक्षो राजन् भृत्योअपी दुर्लभः ।।
{ भोजप्रबन्ध ~ 93 }


सहनशील, उदार और गुणों की पहचान करने वाला स्वामी बहुत कठिनाई से प्राप्त होता है । मनोनुकूल, पवित्र विचार रखने वाला एवं कार्यकुशल सेवक भी बहुत कठिनाई से प्राप्त होता है ।


Tolerant, generous and one who recognizes qualities, such a master is very difficult to get. And a servant who is pleasing, having good thoughts and expert at work is also very difficult to get. { Bhojprabandh ~ 93 }

 

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